कुछ के अधरों पर गुलाब हैं और स्वयं कुछ रजनीगंधा


दोस्तों शायद ये वर्ष १९९६ मार्च की बात है जाकिर हुसैन कालेज में 'आदाब'ने एक कवि सम्मेलन कराया तब हम २४ वर्ष के बाकायदा नौजवान हुआ करते थे ।अल्हड बीकानेरी की अध्यक्षता में नौजवान श्रोताओं के बीच उस दिन अपना रंग इस कदर जमा कि कई सुंदरियों ने आटो ग्राफ लिये।मेरे लिये पहला अनुभव था।उसी हर्षा तिरेक में घर पहुंचते ही एक गीत लिखा गया जो वर्ष २००३ में प्रकाशित मेरे गीत संग्रह 'अक्षांश अनुभूतियों में संग्रहीत है"  आज आपके समक्ष हाज़िर करता हूं----

मेरे चारों ओर भीड है पुष्प -गुच्छ मालाओं वाली
किंतु,प्रिये इस अंतर्मन का कोमल कोना खाली खाली



मेरे हस्ताक्षर लेती हैं कोमल कलिका सी बालायें
मन को भेद -भेद जाती हैं तन्वंगी नाज़ुक अबलायें
तेरी प्राण-लता ना इनमें कह उठता है मन का माली
मेरे चारों ओर भीड है पुष्प -गुच्छ मालाओं वाली

कुछ के अधरों पर गुलाब हैं और स्वयं कुछ रजनीगंधा
हर चेहरा सुंदर लगता है ,हे ईश्वर क्या गोरखधंधा
कुछ हैं सांवली ,कुछ हैं सलोनी,रुप,दर्प की कुछ मतवाली
किंतु ,प्रिये इस अंतर्मन का कोमल कोना खाली-खाली

कभी कभी तो मन करता है किसी को अपने पास बुला लूं
मैं भी अपने मन में किसी की मादक -मोहक छवि बसा लूं
किंतु, कौंध जाती नयनों में फौरन ही तस्वीर तुम्हारी
मेरे चारों ओर भीड है, पुष्प गुच्छ मालाओं वाली

इनमें सबमें मादकता है,मोहकता है,आतुरता है
निश्चय ही सज्जित रहने की इनमे अच्छी चातुरता है   
किंतु चतुरता वाले चेहरे सहज -सरलता कहां से लायें
आकर्षित कर तो लेते हैं ,लेकिन मन में ठहर ना पाये

माना इस शैतान नज़र ने हर सूरत देखी भाली
किंतु ,प्रिये इस अंतर्मन का कोमल कोना खाली-खाली
 

कुछ के   अधरों  पर गुलाब हैं और स्वयं कुछ रजनीगंधा
हर चेहरा सुंदर लगता है ,हे ईश्वर क्या गोरखधंधा
कुछ हैं सांवली ,कुछ हैं सलोनी रूप-दर्प की कुछ मतवाली
किंतु,प्रिये इस अंतर्मन का कोमल कोना खाली खाली

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